स्त्री देवी से शूद्रा तक

इतिहास और साहित्य दोनो में थोड़ा बहुत प्रवेश होने के कारण मुझे हमेशा लगता रहा है कि हमारे पुरातन परंपरा  में इतिहास में साहित्य और साहित्य मे इतिहास का बड़ा अजीब सा घालमेल है। अधिकतर हम साहित्य में इतिहास और इतिहास मे साहित्य खोजने की भूल कर बैठते हैं, पुराणों में लिखा गया अधिकतर साहित्य की मिथक परंपरा में आता है, हम उसे इतिहास मानते हैं किन्तु श्रुति -स्मृति जिसमें काफी कुछ इतिहास है, पर हम इन्हे मात्र साहित्य मान लेते हैं, और यही हम मिथकीय दृष्टिकोण वाले समाज का निर्माण कर लेते हैं। यह भूल हमें कई बातों को समझने भी नहीं देती है, और बीज रूप में हमारे साथ हर काल में जुड़ी रहती हैं। वर्तमान में यद्यपि हमारा समाज काफी हद तक स्मृति कालीन बाध्यताओं से मुक्त हो चुका है , किन्तु बीज रूप में पुरातन दृष्टिकोण समाज के मन मे सदैव रहा है।  वह किसी ना किसी रूप में सिर उठाता रहता है ।  पुरातन साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण एक बात मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि हमारे गौरव शाली देश में जहाँ सैंकड़ौ की तादात में देवियाँ पूजी जाती हैं। वैदिक काल में विदुषी स्त्रियों का उल्लेख है,  लेकिन शुंग काल में ब्राह्मण वाद को स्थापित करने के उद्देश्य से स्मृति शास्त्र लिखवाये  गए थे, जो पुर्वनिर्धारित नियमों की अवहेलना करते हैं।  अथर्ववेद और ऋग्वेद के विवाह सूक्त में स्त्रियों को पति के साथ याग में बैठने काअधिकार था, लेकिन शुंग काल में उनके सभी अधिकारों को लगभग छीन लिया गया।  अकसर यह  दलील यह दी जाती है कि वेद काल में कई स्त्री मंत्र रचनाकार हुई हैं। वैदिक विदुषियों की क्या स्थिति रही थी, इस विषय पर अलग से चर्चा करने की जरूरत है। वेद पाठ से वंचित केवल दो वर्ग रहे, एक स्त्री दूसरा शूद्र। इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री और शूद्र एक ही वर्ग में गिने गए। खरी भाषा में कहें तो दोनो की एक ही जात रही है। लेकिन कभी कभी भाषा भी खेल खेलती है।   भाषाओं में खास तौर से संस्कृत में  स्त्रियों को पुरुषों के समान वर्गित किया है़ जैसे कि ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा आदि। इन सभी वर्गों को पुरुष वर्ग के अनुरूप नाम तो दिए गए पर अधिकार नहीं। जैसे कि ब्राह्मण पुरुष अनुचित सम्बन्ध बनाता है तो उसके लिए कुछ व्रत और पूजा पाठ द्वारा प्रायश्चित का विधान है, किन्तु ब्राह्मणी के किसी अन्य जाति के पुरुष से बनाए गए  अनुचित सम्बन्ध की सजा गधे पर बैठा, शरीर पर तैल चुपेड़, नंगा कर शहर के प्रमुख मार्गों में घुमाने से भी पूरी नहीं होती‍‍ब्राह्मण्याः शिरसि वपनं कारयित्वा सर्पिषा सम्यज्य नग्नां कृष्णां खरमारोप्य महापथमनुसंव्राजयेत्पूता भवतीति विज्ञायते। वसिष्ठ स्मृति -21/2

 

मजे की बात यह है कि स्मृति ग्रन्थ  पुरुष के लिए स्त्री सदैव प्राप्य है, वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि संभोगावस्था में स्त्री पवित्र होती है, – स्त्रियश्चरति संसर्गे श्वामृग ग्रहणे शुचिः। वसिष्ठ स्मृति-28/8 तथा ब्राह्मणाः पादतोमेध्याः स्त्रियोमेध्यस्तु सर्वतः।वसिष्ठ स्मृति-28/9

 

ध्यातव्य है कि जो स्त्री भोग्यावस्था में पवित्र है, वही यदि अपनी मर्जी से किसी से सम्बन्ध बनाना चाहती है तो प्रतारण के अतिरिक्त  अपने कर्म के परिणाम को कई पीढ़ियों तक भोगती है। यानी कि उसकी सन्तति समाज का ऐस हिस्सा बन जाती हैं जो समाज का महत्वपूर्ण कर्म करते हुए भी समाज के किसी भी सुख को भोगने की अधिकारी नहीं रहतीं। मैं यह बात उच्च वर्ग माने गए वर्ग की स्त्री के बारे में कह रही हूँ। वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मण स्त्री की संतान जो शूद्र पुरुष से उत्पन्न हुई हो चाण्डाल कहलाएगी, और क्षत्रिया की शूद्र से उत्पन्न सन्तान वेण कहलाएंगी। ब्राह्मण स्त्री की वैश्य से उत्पन्न सन्तान रामक (रंगरेज) और क्षत्रिया की वैश्य से उत्पन्न सन्तान पुल्कस कहलाएंगी। ब्राह्नणी की क्षत्रिय से उत्पन्न सन्तान सूत कहलाएंगी।

 

शूद्रेण ब्राह्मण्यामुत्पन्नश्चाण्डालो भवतीत्याहुः। राज न्यायां बैणो वैश्यायामन्त्यावसायी।। वसिष्ठ स्मृति 18/1,

 

वैश्येन ब्राह्मण्यामुत्पन्नो रामको भवतीत्याहुः।राजन्यायां पुल्कसः।। वसिष्ठ स्मृति  18/2

 

राजन्येन ब्रह्मण्यामुत्पन्नो रामको बवतीत्याहुः। राजन्यायां पुल्कसः।।वसिष्ठ स्मृति18/3

 

उठने को तो कई सवाल उठाये जा सकते हैं, मसलन पितृप्रधान समाज में जहाँ सन्तान को पिता का नाम,गोत्र मिलता है वहाँ स्त्रियाँ गोत्र निर्धारण का कारण कैसे बनी? कारण स्पष्ट है कि ये नाम  उन्हें सजा के तौर पर मिले हैं। जितनी ऊँची जाति की स्त्री, उतनी बड़ी सजा। दूसरी ओर जितनी ऊँची जाती का पुरुष, उतनी ही कम सजा। यानी कि यदि ब्राह्मण को अनाचार करता है तो कुछ व्रत आदि करके प्रायश्चित कर लेता था, फिर उत्तरोत्तर सजा बढ़ती जाती थी। स्त्री के संबन्ध में यह स्थिति उल्टी मानी गई है।  तो फिर स्त्री की जाति क्या हुई? वह जो उसकी सन्तति में है, या वह जो उसके जन्म दाता में है।

सवाल उठाने का मतलब ही नहीं कि यदि इतना भेद भाव रखना था तो स्त्रियो में वर्ग विभाजन की क्या जरूरत रही? सजा भी कम मजेदार नहीं है, जैसे कि क्षत्रिय सगोत्र माता पिता की सन्तान तो क्षत्रिय ही कहलाएगी, किन्तु उनसे ऊँचे वर्ग की ब्राह्मण स्त्री की क्षत्रिय पुरुष से उत्पन्न सन्तान सूत कहलाएगी। और रामायण के सन्दर्भ से हम जानते हैं कि सूत जाति क्षत्रिय जाति से नीची मानी गई। निसन्देह ये विभाजन स्त्री के लिए सजा के तौर पर ही किए गए। यहाँ एक तीर से दो काम किए गए, एक तो समाज को ऐसे काम करने वाले बेगार मिल गए, जिन्हे सामान्यतौर पर कोई नही करना चाहेगा। दूसरे स्त्री के  मन में यह भय बैठा दिया गया कि तुम्हारी मनमानी की सजा तुम्हारी सन्तति सृष्टि पर्यन्त भोगेगी। अधिकतर स्त्रियाँ सन्तान के प्रति संवेदन शील होती हैं।

 

यहाँ यह दलील दी जा सकती है कि जो गया उसे जाने दें, आजकल तो स्मृति शासित समाज नही है ना। लेकिन भय इसी बात का है कि आजकल यह सब इतने छद्म रूप में हो रहा है कि इसका प्रभाव आज नहीं कुछ काल बाद दिखाई देगा। रोजाना की किसी ना किसी खबर में हम स्त्री के अस्तित्व से सम्बन्धित भेद भाव को देखते हैं, किन्तु जब भी स्त्री का प्रेम प्रसंग आता है हमारा जाति भाव जाग जाता है। यह समस्या मात्र पितृ प्रधान समाज तक सीमित रहती तो ठीक था, किन्तु यह बीमारी मातृ प्रधान समाज तक चली आ रही है। केरलीय समाज में नायर समाज जो कि मातृप्रधान हुआ करता था, काफी कुछ पितृ प्रधान बनता जा रहा है। इस समाज में सन्नति को माँ और मामा का नाम मिलता था, लेकिन आज अनेक दम्पत्ति सन्तति को पिता का नाम देना गर्व की बात मानने लगे हैं। अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो गई है। एक और यह लगता है कि स्त्री को बेहद स्वतन्त्रता या फिर उच्छ्रलंगता के स्तर तक की स्वतंत्रता मिल गई है, और दूसरी और वह अजीब से दवाब में जी रही है। छोटे- बड़े रुपहले पर्दों में दिखाई देता है कि अधिकतर महिलाओं के कपड़े प्याज के छिलकों से उतरते जा रहे हैं, किन्तु क्या यह उनकी स्वत्नंता है या फिर पुरुष वर्ग  की आँखों में आकर्षित दिखाई देने की कोशिश? क्या  यहाँ  स्त्रियोमेध्यस्तु सर्वतः स्थिति उत्पन्न करने की कोशिश नहीं है? सर्वांग प्रदर्शन स्त्री के लिए बोद्धिक विकास नहीं बल्कि शारीरिक आकर्षण को बढ़ाने की कोशिश है, जिसमें वह स्वयं को भोग्य वर्ग में स्थित करने की कोशिश करती है। यहाँ पर उसकी बस एक जात रह जाती है कि वह भोग्या है, सबके लिए शुद्ध है, कोई भी उसका मानसिक संभोग कर सकता है। लेकिन जब बात पत्नी या पुत्री की आती है, तो वस्त्र विधान ही नहीं. नियम कानून भी स्मृति ग्रन्थों का अनुकरण करने लगते हैं। यह बात यदि देहात तक सीमित हो तो कोई बात नहीं, बड़े- बड़े शहरों में यह खुले आम हो रहा है, नए वर्ष के समारोह के दिन सरे आम तीन महिलाओं के साथ भीड़ के द्वारा जबरदस्ती करना जन मानस में दबे पड़े स्मृतिकालीन संस्कृति के बीज नहीं है तो क्या हैं? अन्याय के बावजूद स्त्रियों का चुप रह जाना भी उसी परम्परा के अवशेष हैं। यहाँ अधिकत लोगो की प्रतिक्रिया यही रही कि क्यों गई लड़कियाँ नया वर्ष की पार्टी में? क्या घर मे आराम से बैठी नहीं रह सकती थीं? बहुत कम लोगों के मन में यह भय जगा होगा कि यदि एक पूरी भीड़ एक साथ अन्याय करने पर उतारू हो जाए तो समाज की क्या दिशा होगी? समाज यदि भीड़ में परिवर्तित होने लगे और भीड़ अन्याय की ओर, तो फिर स्मृतिकालीन नियमों के पुनः लागू होने में अधिक समय नहीं लगेगा। और फिर औरत का कर्म या भाव समाज की जात को निर्धारित करने की कोशिश करने लगेगा। इस दिशा में सजग होना समाज के हित में है, और साहित्यकारों का दायित्व है।

डा रति सक्सेना

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चेट्टिकुन्नु, मेडिकल कालेज पो. आ

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