जुले लद्दाख – ( Part 4) By Rati Saxena

अगले दिन हमे जल्दी निकलना था, क्यों कि यह जरा लम्बी यात्रा थी। कई मील की दूरियों पर बसे कुछ गोम्फाओं की यात्रा थी। रास्ते भर पहाड़ों के चेहरे मोहरे, तरह तरह की भावभंगिमाएँ देख मन खुश होता रहा। हर जगह नया नजारा, पहाड़ के इतने रूप भी हो सकते हैं मेरी कल्पना के परे था। पहाड़ न हो गए, दरख्त हों, रंग अलग , शक्लों सूरत अलग, कोई इतना भुरभुरा की पहाड़ कम रेत का टीला ज्यादा लगता तो कोई इतना नीला कि बादल का ढेर लगता

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समझ नहीं पा रही

इतने सवेरे

किसने जड़ दिए

बेमौसन चुम्बन

तुम्हारे चेहरे पर

कल रात तो तुम

झक थे सफेद रुई की तरह

आज इतने नीले क्यों??

 

क्यों तुम्हारा चेहरा

दिपदिपा गया है

गोम्फा में बैठे देवता की तरह

तुमने कहाँ दी दावत

मैंने ही डाल दिया डेरा

तुम्हारे घर की दहलीज के भीतर

अवधूतों, जरा चिलम तो बुझाओ

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पहाड़ों के सीने पर खुदी सड़के बड़ी साफ और खूबसूरत थीं, मैं यही सोचती रही कि हमारे देश के अनेक राज्यों में सड़कों की जो खस्ता हालत है, उसके लिए तमाम कारण गिनाए जाते हैं किन्तु इन पहाड़ों पर सड़क बनाने वाले सेना के जवान हैं, वे कैसे इन सड़कों को सजाए- सँभाले रहते हैं। संजीव रोल्वा ने बताया था कि चीन वाले हिस्से में सड़कों की हालत भारतीय सड़कों से कहीं बेहतर है। यदि ये सड़के सेना ने बनाईं हैं तो पहले क्या था? यानी कि पहले लद्दाख के लोग कैसे आना जाना करते थे? मैंने अपनी शंका नवाँग छेरिंग के सम्मुख रखी। नवाँग ने बताया कि पहले लोग पैदल जाया करते थे, सर्दियों से पहले ही कुछ लोग लाहौल, कुल्लु मनाली के रास्ते  होते हुए मैदानों तक पहुँच जाते थे।  पैदल? मैं चौंक गई, एक हम हैं जो कार में भी थक रहे हैं और एक ये लोग हैं जो कितना चल लेते हैं। सच ही है, इस शरीर को जितना आराम दिया जाए, उतना ही आराम करता है।

कुछ देर बार निम्मु घाटी आ गई, यहाँ पर एक पहाड़ी है जिसे चुम्बकीय माना जाता है, इसीलिए वहाँ कार पार्क करने के लिए भी निश्चित स्थान बनाए गए हैं। पास ही जाँस्कर नदी दिखाई देती है , जो अन्ततः सिन्धु नदी मिल जाती है और पाकिस्तान में प्रवेश कर जाती है।  जाँस्कर नदी के लिए कहा जाता है कि इसके पानी में धातु मिली है शायद,  इसीलिए इसका पानी पीने लायक नहीं है। दूर से देखने पर पानी गहरे नीले या फिर श्यामल से रंग का लग रहा था। जिस स्थान पर जाँस्कर नदी सिंधु नदी से मिल रही थी उस स्थान पर तो दोनो नदियों के पानी में साफ अन्तर दिखाई दे रहा था। जाँस्कर गाँव लद्दाख का पारम्परिक गाँव है जहाँ पर पशु धन अधिक है। यहाँ के लोगो का रहन सहन अधिक पारम्परिक होता है।

कुछ दूर जाने पर  रास्ते में अजीब से सूखे पहाड़ दिखाई दिए, जिनपर मिट्टी के टीले इस तरह चढ़े हुए थे जैसे कि लोथड़े हों, बीच बीच में कुछ बाँबी के आकार के भी थे, इस इलाके में पानी का नामो निशान तक नहीं था। नवाँग छेरि्ग ने बताया  कि इसे “मून लैण्ड”  कहते हैं, अर्थात् चाँद की जमीन भी कुछ ऐसी उबड़ खाबड़ है। निसंदेह यह चाँद की कल्पना की विपरीत रूप स्थान था, किन्तु कम खूबसूरत, नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता।

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इसे मून लैण्ड कहते हैं”

नवाँग छेरिंग कहता है

तो फिर चाँद वैसा नहीं जैसा कि

मुझे दिखता है?

उदयपुर की झील में

काँसे की थाली सा तैरता

नारियल के दरख्तों में

उलझा सा

बादलों से झगड़ता सा

तो फिर

ऐसा होगा चाँद?

सूखे भूरे

पहाड़ों से लटके लोथड़ों सा

दरख्त सी खड़ी बाँबियों सा

अनघड़ आकृतियों सा

 

कैसा भी हो,

कितना करीब आ गया है चाँद

बिल्कुल मेरी एड़ी के नीचे

 

आज पहली बार लगा

कि मैं भी चाँद हूँ

भूसर लोथड़ों और

बाँबियों से सजी

 

हमारा सबसे पहला पड़ाव “लिकिर” गोम्फा में पड़ा। यह लेह से करीब ५२ किलोमीटर की दूरी पर है, सबसे पहले यह 11 सदी में निर्मित हुआ था, किन्तु  15 वीं सदी में यह गोम्फा आग में जल गया अतः फिर से बनाया गया,  अन्य गोम्फाओं की तरह यह भी पहाड़ी पर बना हुआ था । आज जो हम गोम्फा देखते हैं वह 18 वीं सदी में बनाया गया है। “लिकिर” के गोम्फा की विशेषता यह भी थी कि इसकी खिड़कियों और दरवाजों में  अन्य गोम्फाओं की अपेक्षा अधिक नक्काशी थी , बिल्डिंग भीतर से भी बहुत विशाल थी, गोम्फा के भीतर कई मन्दिर थे। संभवतः यह अपेक्षाकृत नया है इसलिए इसके निर्माण में कौशल दिखाई देता है। नवाँग कई लामा लोगों को जानता था, इसलिए वह मन्दिर खुलवा कर दिखवा रहा था। लिकिर के प्रमुख दरवाजे पर दो गायों के बीच चक्र सा बना हुआ था जो संभवतः अहिंसा का परिचायक होगा। भित्ती चित्रों मे विभिन्न बौद्ध देवी देवताओं के चित्र बने हुए थे। कई जगह बड़े बड़े मुखौटे भी रखे हुए थे जो संभवतः मन्दिर के उत्सवों के समय काम आते थे । गोम्फा के हर भवन में बला की सुन्दर कला कृतियाँ बनी हुई थीं।  लिकिर गोम्फा प्राचीन गोम्फाओं में से एक है. यहाँ पर आसपास के कई गाँवों के लोग आते हैं, इस गोम्फा का अपना विद्यालय है जहाँ लामाओं को बौद्ध धर्म की शिक्षा भी दी जाती है। मन्दिर की ऊपरी भाग में बौद्ध की विशाल काँस्य की मूर्ति है, इन विहारों का काम संभवतः दान आदि से चलता है तभी अनक स्थानों पर दान पात्र भी रखे हैं। अब तक मुझे गोम्फाओं की प्रकृति समझ में आने लगी थी। लिकिर गोम्फा नालन्दा के समान एक अध्यापन केन्द्र भी है, किन्तु हमे ज्यादा लामा दिखाई नहीं दिए, नवाँग ने पूछताछ कर के बताया कि आजकल लामयुरा में उत्सव चल रहा है, इसलिए कई लामा लोग उसमें भाग लेने के लिए लामायुरा गए हैं। लिकिर गोम्फा काफी शान्त और सुन्दर था, हम लोग काफी वक्त तक यहीं रहे। फिर आगे की ओर चल दिए।

अगला पड़ाव लामायुरा गोम्फा के लिए था। यह लेह से करीब 125 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका निर्माण  10 वीं सदी में हुआ बताया जाता है। किंवदंति है कि यहाँ पहले केवल पानी था, किसी लामा के वरदान के कारण जल में से पहाड़ी उभर कर आई और इस गोम्फा का निर्माण हुआ। लामायुरा में अपेक्षाकृत भीड़ थी, पर्यटकों के साथ- साथ आसपास के गाँव के कई लोग जमा थे। मालूम पड़ा कि युन्दरुंग कबग्याद नामक उत्सव चल रहा था, आज उसका आखिरी दिन है। मन्दिर के अहाते में बच्चे लामा उछलकूद मचा रहे थे, एक ओर कुछ युवा लामा झुण्ड में बैठ हुए खिल- खिल, ठी -ठी कर रहे थे। बूढ़े बुजुर्ग लामा संचालन में व्यस्त से घूम रहे थे। लामायुरा के मन्दिर के भित्ती चित्रों में देवताओं की मूर्तियों और तंकाओं के साथ- साथ जो आकर्षण था, वह था मक्खन से बनाई हुई विभिन्न आकृतियाँ , मन्दिर के भीतर गुड्डे गुड़ियों की तरह कुछ चेहरे मोहरे या विचित्र आकृतियाँ बनी रखी थीं। जब मैं आसाम गई थी तो वहाँ अरुणाचल  विश्व- विद्यालय के अहाते मे छात्रगण किसी उत्सव की तैयारी कर रहे थे, वहाँ भी उन लोगों ने बुद्ध के सामने इस तरह की मक्खन से बनी आकृति बना कर रखी थी। यानी कि मक्खन की मूर्ति कला बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कला है, जो उन जगहों में प्रसिद्ध है जहाँ पर धर्म का विकास हुआ। ठण्डक के कारण मक्खन पिघलता नहीं है और मुलायम होने के कारण बारीक से बारीक आकृति देने में सुविधा होती है। आकृतियों को रंगा भी जाता है । ये नक्काशी इतनी खूबसूरत थी कि हम काफी देर तक उनका चित्र खींचते रहे। मालूम पड़ा कि ये सब विरोधी प्रवृत्तियों की आकृतियाँ हैं जिन्हें आज उत्सव के अन्तिम दिन दुपहर तक पहाड़ियों के ऊपर से नीचे फैंक दिया जाएगा, एक तरह से यह बुराई के विरोध का प्रतीक होगा। मुझे लगा कि हर त्यौहार का एक उद्देश्य होता है, वह है बुराई का नाश, संभवतः बौद्ध विहारों के त्यौहार भी इसी भावना से जुड़े हुए थे। मुझे उन कलाकृतियों के बारे में अधिक जानकारी तो नहीं मिली किन्तु कलाकृति ने मन मोह लिया। इन के अतिरिक्त भी मन्दिर के भीतरी हिस्से में रखी हर चीज कलात्मक थी, यह चाहे ठिगुनी मेजें, जिस के करीब गद्दियों पर बैठ लामा लोग चर्चा करते हैं, या फिर कोने में रखा बड़ा सा नगाड़ा हो, या फिर शहनाई सा वाद्य यन्त्र , हर वस्तु में कलात्मकता देखने योग्य थी।  इसके बाद हम दूसरे भवन गए, वहाँ पर भी करीब करीब उसी तरह की आकृतियाँ बिखरी पड़ी थीं। यहाँ पर सत्तू का प्रसाद भी मिला। बौद्ध मन्दिरों में प्रसाद की थाली आगे कर दी जाती है, प्रसाद स्वयं ले लिया जाता है। जौ का सत्तू इतना स्वादिष्ट होगा हमने सोचा तक ना था। मन्दिर के ऊपर गायों के बीच चक्र मिट्टी की मूर्ति कला में बना हुआ था। मन्दिर में अच्छी खासी चहल पहल थी, बच्चे बूढ़े जवान सभी आ जा रहे थे। लामयुरा गोम्फा की चहल पहल मन को लुभा रही थी, बार बार मन हो रहा था कि हम भी रक कर उत्सव का अन्त देखें। किन्तु लेह वापिस पहुँचने के लिए जरूरी था कि हम समय पर चल दें। लामायुरा के नजदीक ही पहाड़ियों में कई गुफाएँ हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि लामागुरु वहाँ तपस्या करते हैं।

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उँचे और उँचे

चलते जाओ

मीठे और मीठे

बनते जाओ

शान्ति की चाहत है तो

कटते जाओ, कटते जाओ

जमीन से, बाजार से,

लोगों से,

 

“पहाड़ की चोटियों पर बने

घौंसले से टंगे गोम्फा

खींचते हैं मुझे

फिर पोत देते हैं

रंग मिला मक्खन

मेरे राक्षसी चेहरे पर

चीखते चिल्लाते लामा

फैंक देते हैं घाटियों में

मैं फिर से तैयार हूँ

आदमजात बनने के लिए”

फुसफुसा कर कहा था मुझ से

लामायुरा की दानव मूर्ती ने॔

मैं तैयार हूँ रंग के लिए

मक्खन के लिए

और ऊपर से नीचे फैंके जाने के लिए

 

ऊपर उठने के लिए जरुरी है

गिरने की चोट पाना

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लामायुरा गोम्फा से निकल कर कस्बे की ओर आए, यहीं पर हमें खाना भी खाना था। आजकल लद्दाखियों के साथ साथ नीचे से भी कई लोग आकर अपना  व्यापार शुरु कर देते है। कई लोग होटल खोल लेते हैं, तो कई सामान बेचना शुरु कर देते हैं। इसलिए कई होटल खुल  गए हैं, किन्तु हमे तलाश थी लद्दाखी खाने की, आज हम “मौमौस “नामक व्यंजन खाना चाहते थे। यह समोसे जैसी शक्ल का होता है जिसे भाप में पकाया गया होता है। चावल के आटे में सब्जी या कीमा भर के विशेष आकार देकर मौ मौ तैयारकर लिए जाते हैं , विशेष बर्तन में भपा लिया जाते है। भपाने के लिए पानी की जगह सूप का उपयोग किया जाता है। हम एक छोटे से ढाबे में पहुँचे, जिसे एक समार्ट सी लद्दाखी लड़की चला रही थी। दो लड़के होटल के किनारे में ही खाना पका रहे थे, उन में एक जरूर निचले प्रदेश का होगा, ऐसा देखने से ही लग रहा था। एक बूढ़ी एक मेज पर बैठी थी जो संभवतः उस युवा लड़की की सहायता के लिए उपस्थित थी। मौमौस स्वादिष्ट थे, किन्तु लद्दाख में ज्यादा खाना पचता नहीं, हम लोगों ने एक प्लेट से ही काम चला लिया।

अब हमें लौटना था, रास्ते में हम अलिचि गोम्फा छोड़ आए थे। पहाड़ी हवा चाहे हल्की होती है किन्तु यहाँ पेट के भारीपन को शरीर संभाल नहीं पाता, लद्दाख में कुछ दिनों तक तो हमें भूख का अन्दाज तक नहीं लगा था। इतने दिनों से हम खा रहे हैं क्योकि खाना हमारी आदत में शामिल हो गया है। अन्यथा कस कर भूख लगने की बात कि हम भूल ही गए थे। नवाँग गजब का कुशल चालक था। वह जिस सर्राटे से पहाड़ी इलाके में घुमावदार सड़कों पर गाड़ी चला रहा था , वैसा शायद मैदानी इलाके में भी संभव ना हो। उसने लामायुरा से हमे कारगिल भी दिखाया, किन्तु हम लोगों की हिम्मत नहीं थी कि और आगे की यात्रा करें। जाँस्कर गाँव की यात्रा भी हमने रद्द  कर दी, जाँस्कर को ” द लास्ट वेलि” के रूप में भी जाना जाता है। यह अलग थलग पड़ा प्रान्त है, इसलिए आज भी आदिवासी संस्कृति जीवित है। बस अलिची जाकर वापिस लौटने का सोचने लगे। लेकिन इस वक्त तक मेरे सिर पर बेहद दर्द शुरु हो गया था, मेरा ध्यान पहाड़ों से सरक कर सड़कों पर चला गया था शायद।

 

अलिचि लद्दाख का काफी मशहूर गोम्फा है, यह धर्म की दृष्टि  से लिकिर गोम्फा के आधीन है।   यहाँ विदेशी सैलानी  आकर रहना पसन्द करते  हैं, यह संभवतः प्राचीनतम गोम्फाओं में एक है। यह बौद्ध विहार भी है, हमने भीतर कई बच्चों को लामा की वेषभूषा में खेलते हुए देखा। एक बड़े लामा शिक्षक उन पर नजर रख रहे थे। भीतर एक कक्ष था जहाँ पर कक्षाएँ चल रही थीं। करीब करीब सभी मन्दिर बन्द थे। नवाँग के कहने पर बस तीन मन्दिर खुलवा कर दिखाए गए। कहाँ जाता है कि अलिचि के विहार चीनी सैलानी ह्वैन साँग के समय के हैं। मन्दिर का अहाता और सामान यह बता रहा था कि मन्दिर के भीतर की सामग्री काफी पुरानी है। मन्दिर की दीवारे मिट्टी की थी, और शायद डेढ़ दो फिट चौड़ी होंगी। भीतरी भाग में तंका चित्रकारी से देवी देवता अंकित हैं। जिनके चित्र फीके पड़ गए थे। तंका चित्रकारी में प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता है, कुछ हिस्से पर पुनः चित्रकारी शुरू की गई थी, किन्तु इस बार वे लोग तैल रंगों का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे चित्रों में अजीब सा भड़कीलापन दिखाई देने लगा। प्रमुख मन्दिर में बीचोबीच एक विशाल मिट्टी की प्रतिमा है, जिसके अभिषेक के लिए शायद सीढ़ियों पर चढ़ना पढ़ता होगा। बताया गयाकि यह मन्दिर 1500 वर्ष पुराना है। इतने वर्षों पूर्व भी विशाल देव प्रतिमा और उसके लिए मन्दिर निर्माण कौशल, संभवतः वास्तुशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। गोम्फा गाँव से घिरा था, विदेशियों के कारण कई होटल और शोरूम भी खुल गए थे। यही कारण है कि आस्था और व्यापार में एक कश्शमकश्श सा लग रहा था। लद्दाख का भविष्य क्या होगा, लिकिर में घटी एक घटना से मिला। लोकिन की स्थाप्य कला और चित्रशैली॓ काफी प्राचीन है, किन्तु मन्दिरों के भीतर फोटों खींचने की मनाही है। मैंने बाहर एक एम्पोरियम को देखा तो सोचा कि क्यों नहीं वहाँ से कुछ पिक्चर कार्ड ले लूँ। एम्पोरियम के बाहर  एक आठ दस साल का बच्चा बैठा था, मैंने उससे पूछा तो उसने काफी अच्छी इंगलिश में कहा कि लिकिर के पिक्चर कार्ड तो नहीं हैं, और किसी जगह के चाहिए तोले लीजिए। उस बच्चे के चेहरे पर व्यापार कौशल और गजब का आत्मविश्वास था, जो गोम्फा के भीतर खेलते लामा बच्चों में नहीं था। यह  बच्चा किसी और स्थान के प्राणी के समान बैठा था। मैंने प्रदीप से कहा कि वे कुछ चित्र बाहर से ही खींच लें, जब तक मैं यहीं बैठी हूँ, उस बच्चे से बात करने से पता चला कि वह चण्डीगर के किसी कान्वेन्ट में पढ़ता है। तभी उसके परिवार के कुछ लोग बाहर निकल कर आए, लद्दाख में लोग अनजाने लोगों से भी खुश होकर बाते करते हैं। उन्होंने मुझसे जुले कहा और पूछने लगे कि मै यहाँ क्यों बैठी हूँ, मैने उन्हे बताया कि मुझे जोरदार सिरदर्द है। तो वे कहने लगे दवा खा लीजिए। मैंने उन्हें देखा और बच्चे को, बच्चा में लद्दाकी भोलापन नहीं था, मै सोचने लगी कि जब यह बच्चा बड़ा होगा तो शायद लद्दाख पर्यटन के लिए पूरी तरह से आकर्षण का केन्द्र बन जाएगा, तब इस बच्चे की कल्पना सहजता की अपेक्षा चतुराई से भरी होगी, इस तरह एक प्राकृतिक परिवेश का नाश हो जाएगा। विकास सहजता की मुहताज नहीं होती, लेकिन क्या इससे विकास रोक दिया जाए? यह एक विवाद भरा सवाल हो सकता है।

लौटने  की यात्रा मेरे लिए सुखकारी नहीं थी,  रास्ते मे उल्टी हो गई, और जी मिचलाता रहा। अब न पहाड़ दीख रहे थे, ना बादल, न बर्फ दिख रही थी न फिजा, मान भटक भटक कर डैने की ओर  भाग रहा था।

किसी तरह डेरे पर पहुँचे तो मैं पूरी तरह से पस्त हो गई थी।

 25.6.2006

 

क्रमशः