जुले लद्दाख – Part-3 by Rati Saxena

अगला पड़ाव था “स्तोक पैलेस” । यह लेह राज महल है जिसका एक हिस्सा सैलानियों के लिए खोल दिया गया है। इसे 17 वी सदी में राजा सिग्गे नंगियाल के लिए बनवाया गया था, बाद में 1830 में राजपरिवार इसे छोड़ कर स्तोक में बसना पड़ा। यह नंगियाल पहाड़ी पर बना हुआ है। आम राजमहलों की तरह इसके  अन्दर जाने के लिए भारी भरकम टिकिट भी लगा। लद्दाखी राजमहल राजस्थानी राजमहलों की तरह आलीशान तो नहीं था, किन्तु भव्य अवश्य था। यह नौ मंजिला है, जिसका केवल एक हिस्सा ही पर्यटनों के लिए खोला गया है। दीवारें मिट्टी की ईँटो और गारे से बनी थीं. लाल रंग से  पुती छोटी- छोटी खिड़कियाँ, मानों पहाड़ पर  मकानों का झुरमुट सा खड़ा हो। पता चला कि लद्दाखियों में राजनीति की काफी समझ है, चुनावों में भी उन्होंने किसी भी राजनैतिक पार्टी को टिकिट न दे कर अपनी ही पार्टी बनाई और अपने ही प्रतिनिधि को जिताया। यह बात अलग है कि उनका नेता राजपरिवार का है, और वहाँ अब भी लामाओं की यानी कि धर्मगुरुओं की चलती है। राजमहल में पहुँचने तक दोपहर का समय हो गया था , थोड़ी ही देर में राजमहल लोगों के लिए बन्द होने जा रहा था। महल का जो हिस्सा सैलानियों के लिए खुला रखा था उनमें कुछ तंके और बौद्ध शैली में देवी देवताओं के चित्र थे जिनके बारे में बताया गया कि वे हजारो साल पहले के बने थे, दीवार पर टंगे थे। एक कक्ष में रानी के जेवरात थे जो बहुमूल्य पत्थरों से जड़े थे। रानी का सिर पर पहनने वाला आभूषण बेहद खूबसूरत और भारी था। परम्परा के अनुरूप यह जेवर रानी की बड़ी पुत्री को मिलना चाहिए, किन्तु रानी ने ये आभूषण राजमहल में प्रदर्शन के लिए रख दिए।

 

एक अन्य कक्ष में युद्ध आदि से सम्बन्धित वस्तुएँ और बर्तन आदि थे, जैसा कि सामान्यतया इस तरह के प्रदर्शनी   में होता है। एक बूढ़ा टूटी -फूटी हिन्दी में चीजों के बारे में बतला रहा । तभी एक भूतपूर्व मिनिस्टर सपरिवार आए, स्वभावतः वे कुछ ज्यादा अन्टेशन की चाह रख  रहे थे। बूढ़ा रक्षक उन्हें टालने लगा, यहाँ तक उसने उनसे कह दिया कि ” वक्त हो रहा है, आप लोग जल्दी करो” मैंने सोचा कि शायद बूढ़ा मिनिस्टर साहब को पहचानता नहीं होगा, नहीं तो आम जनता में मिनिस्टर क्या एम ए ले तक सिर पर बैठाया जाता है। इसलिए मैंने उससे कहा कि भई ये मिनिस्टर हैं, उसने तपाक से मिनिस्टर के मुँह पर कहा -“.मुझे क्या मालूम कौन हैं, कहाँ के मिनिस्टर विनिस्टर हैं, लंच  के टाइम हम किसी को भीतर नहीं रहने देते हैं। ”

बेचारे मिनिस्टर साहब को ऐसा बन्दा शायद ही कभी मिला हो। बाद में बूढ़ा दूसरे कक्ष में हमें सामान दिखाने गया तो कहने लगा कि ,आप तो जल्दी जल्दी देखो , इन मिनिस्टरों के चक्करों में कहाँ पड़ गए, ये सब चोर है। स्वभाविक था कि मिनिस्टर को सम्मान ना देना उसकी अज्ञानता नहीं , बल्कि उदासीनता थी। एक दूसरा वाकया भी उसी बूढ़े से जुड़ा था, वह एक विदेशी परिवार को जोर- जोर से हिन्दी में  कुछ बतला रहा था, उनका मुखिया विदेशी भी जोर जोर से सिर हिला कर यह जता रहा था कि उसे सब कुछ समझ में आ रहा है। मुझे कुतुहल हुआ, मैंने विदेशी से हिन्दी में पूछा.. आपको हिन्दी समझ में आती है? , उसने तुरन्त बड़े भोलेपन से कहा..नइ, मुझको हिन्दी नइ मालूम.. मुझे हँसी आई, मैने उस बार अंग्रेजी में पूछा.. तो फिर आप इतने ध्यान से क्या सुन रहे थे?  उसने हँस कर कहा कि मैं उन्हे निराश नहीं करना चाहता था कि मैं उनकी कोई भी बात नहीं समझ नहीं पा रहा हूँ। इस तरह स्तोक पैलेस का भ्रमण ठहाकों के साथ पूरा हुआ। स्तोक पलैस के सामने एक होटल था , जिसमें हम लोगों दिन का भोजन करना चाहा, आजकल भारतीय खाने के नाम पर पंजाबी खाना संभवतः  पूरे भारत में प्रसिद्धी पर है, केरल में भी केरलीय खाना मुश्किल से कुछ होटलों में मिलता है। कभी- कभी तो डोसे , अप्पम के साथ भी चने, पनीर

आदि मिलते हैं , जिससे बड़ी कोफ्त होती है। यहाँ भी मैनु कार्ड में इसी तरह के खाने के नाम थे, हमने खास तिब्बती खाने के बारे में पूछा और थुकपा का आर्डर दिया, थुकपा एक तरह का सम्पूर्ण भोजन है, इस में सूप में जो के आटे के साथ तरह तरह की सब्जियों को पकाया जाता है, और चटनी के साथ खाया जाता है। हम सोच रहे थे कि एक प्याले में क्या होगा, किन्तु यह इतना भारी पड़ा कि पूरा खाना मुश्किल हो गया। नवाँग छेरिंग ने बताया कि सर्दियों के दिनों में जब बर्फ के कारण बाहर निकलना भी मुश्किल होता है, इसी से काम चलाया जाता है। तब सब्जियों के स्थान पर माँस के सूखे टुकड़ों से काम चलाया जाता है।

 

अगला पड़ाव थिकसे गोम्फा था। यह पहाड़ी के ऊपर स्थित है, यह गोम्फा बड़ा भव्य और सुन्दर है। यह तिब्बती वास्तुकला का खूबसूरत उदाहरण है।  इसे शेर्ब जंगपो के भतीजे पल्दन शेराब ने बनवाया था। यह 12 मंजिल ऊँचा है, इसमें कई भवन और बुद्ध की मूर्तियाँ है। इसे आज भी बहुत अच्छी तरह से रखा गया है।  रास्ते में सीढ़ियों के दोनो ओर खूबसूरत गुलाब लगे थे। अन्दर कई मन्दिर थे, प्रमुख  मन्दिर में बुद्ध की 15 फिट ऊँची  काँसे की मूर्ति है,  जिसका तीन मंजिलों से दर्शन होता है, हम लोगो ने बीच वाली मंजिल से मूर्ति के दर्शन किए। कला और आस्था में कितना गहरा सम्बन्ध होता है, यह बात पारम्परिक पूजा स्थलों में जाकर ही मालूम होती है। थिकसे में बुद्ध की विशाल मूर्ति इतनी पावन और खूबसूरत थी कि खुद ब खुद मन में आस्था हो जाए, वहाँ अनेक सैलानी थे, पर सभी गोम्फा की शालीनता बनाए हुए थे। दीवार पर खूबसूरत तंका चित्रकारी, बुद्ध का मुकुट तो देखने योग्य था, मुकुट की हर कला में कोई ना कोई बौद्ध देवता,…. इतनी भव्य व खूबसूरत मूर्ति फिर कभी देखने को नहीं मिली।

थिकसे में आकर मन प्रसन्न हो गया था।

 

हमारा अन्तिम पड़ाव सिन्धु नदी पर था, सिन्धु दर्शन के नाम पर जो घाट बनाया गया है वह संभवतः सिन्धु का समतल स्थल होगा, चिकने पत्थरों के ऊपर नदी की धारा बह रही थी।  धारा में पाँव डालते ही मन शान्त हो गया, वेदों की वे ऋचाएँ स्मरण में आने लगीं जिनमें सिन्धु का उल्लेख किया गया है, विशेष रूप से अथर्ववेद का भूमि सूक्त जहाँ सिन्धु के साथ समुद्र भी उपस्थित है।

 

यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।

यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु।।

अथर्ववेदः १२.१.३

मन ही मन उन पूर्वजों को प्रणाम किया जो इतना गंभीर साहित्य भेंट कर गए। २.३०, ३ बजे तक हम लोग अपने खेमे में पहुँच गए थे, लेह में दुपहरी के बाद भयानक आँधी जो चलती है।

 

24.6.2006

 

क्रमशः