जुले लद्दाख by Rati Saxena ( Part -two)

आज हम लोगों को कैद से मुक्ति मिल गई, आज तीसरा दिन था और हम लोग लेह के आसपास के इलाके में घूमने के लिए आजाद थे। टैक्सी बुलवा दी गई थी, लेह में टैक्सी की रेट काफी ज्यादा है, उनकी यूनियन ने जो किराया निश्चित किया है वह शायद डालर के हिसाब से किया है। भारतीय पर्यटकों को याद में रख कर नहीं, फिर भी यदि टैक्सी चालक यदि लद्दाखी हो तो इससे अच्छा अनुभव कुछ नहीं हो सकता। उनका सहज मधुर स्वभाव और मीठी बाते मन मोह लेती हैं। साथ ही  वे बेहतरीन चालक भी होते हैं, पहाड़ी रास्तों पर इस कुशलता से टैक्सी चलाते हैं, मानों वे सड़क पर  नहीं आसमान में उड़ रहे हों।

 

जब हमारी  टैक्सी भी  अठखेलिया मारती सड़को पर उतरी तभी महसूस हुआ कि लेह कितना खूबसूरत है। एक और पहाड़, दूसरी ओर खाई लेकिन जिस  तरह से गाड़ी सरसराती जा रही थी, टैक्सी चालक की कुशलता का अनुभव हुआ। लेह का नित बदलता रूप मन के भीतर तक पैठने लगा। लेह के आसपास हरियाली है, लम्बे- लम्बे सफेदा के दरख्त, दूर- दूर मिट्टी और गारे की ईंटों के बने छोटे छोटे, शान्त  मकान, मकानों की छत पर कगारो से सटे घास के पूले और गोबर के छाने, हँसते खिलखिलाते चेहरे और वातावरण में इतनी शान्ति कि यह समझने में कठनाई नही होती कि यहाँ लोगों के चेहरों पर प्रकृति की बनाई लकीरे जरूर हैं, किन्तु चिन्ता की नहीं।

मैंने टैक्सी चालक से बात करनी शुरु कर दी। उसका नाम नवाँग शेरिंग था। वह करीब 20 साल से टैक्सी चला रहा था, आयु 40 से ऊपर ही थी, किन्तु देखने में 25या 30 से ज्यादा नहीं लग रहा था। उसने बताया कि उसकी पत्नी सरकारी मुलाजिम है, दो बेटियाँ और एक बेटा है। बेटियाँ चण्डीगड़ में होस्टल में रह कर पब्लिक स्कूल में पढ़ रही हैं। बेटियों की स्कूल फीस के बारे में मालूम पड़ा तो मेरी आँखे ही फट गईं। पता पड़ा कि एक बेटी की फीस 75 हजार सालाना दी जाती है, यानी कि वह टैक्सी ड्राइवरी से करीब डेढ़ लाख रुपए केवल बेटियों के पढ़ाई के लिए खर्च करता है। वह भी स्कूल लेविल में। इधर मेरे पति प्रदीप जो वैज्ञानिक हैं, और सरकारी  तौर पर संभवतः सबसे अच्छे वेतन प्राप्तकर्ता की श्रेणी आते हैं, किन्तु शायद हम लोग इस तरह के खर्चे को बर्दाश्त ना कर पाएँ। लद्दाख में ना तो कोई उपज है और ना ही कोई कारखाना, इसलिए नाम मात्र की सरकारी नौकरी के नाम पर घर चलाना लगभग मुश्किल ही होता होगा। उस पर बेटियों की पढ़ाई के लिए इतना खर्चा, मेरी कल्पना के भी परे था।

लेह में स्त्रियों की इज्जत है, इसमें कोई सन्देह नहीं। सामाजिक संगठना इस तरह की है कि स्त्रियों को समकक्ष ही नहीं, निर्णयकर्ता के रूप में भी लिया जाता है। प्रकृति के निकट रहने वाले लोग स्त्रियों को समकक्ष ही नहीं मानते, उन्हें अधिकार भी देते हैं, प्रकृति स्त्री लिंग जो ठहरी। मुझे याद आया कि साहित्य अकादमी के पुरस्कार वितरण सम्मेलन में मिजोरम के कोई सज्जन अपनी प्रान्तीय वेशभूषा में थे  जो  गजब  की आकर्षक लग रही थी, मैंने उनसे पूछा कि क्या आपके प्रान्त में स्त्रियों की वेशभूषा भी इतनी ही आकर्षक होती है  तो उन्होने मुस्कुराते हुए कहा कि हम लोग जंगल के वासी हैं और जंगल का नियम यह है कि नर मादा को आकर्षित करता है। इसलिए इस चटकीले पन की जरूरत हमें है,  स्त्रियों को नहीं। ।  लद्दाख में स्त्री पुरुषों की पारंपरिक वेशभूषा तो एक सी है, कोमलता भी स्त्रियों के चेहरे पर ज्यादा है किन्तु पुरुष स्त्री को सम्मान देकर अपने मन के चटकीलेपन को दर्शाते हैं।

मैंने चालक से पूछा.. इतना पैसा कमा लेते हैं ? तो पता चला कि वे उन चालकों में से हैं जो बर्फीले मौसम में भी गाड़ी चला लेते हैं और कितनी भी दूर तक जा सकते हैं। यही कारण है कि कमाई भी जम कर होती है। लेह के मूल वासी ना होने के कारण लेह में टेम्परेरी मकान दूसरे शब्दों में कहें तो झोपड़ी झुग्गी बना कर रहते हैं। जीवन इतना सादा कि आश्चर्य होता है, कोई भी  मौसम हो, कैसा भी मौसम हो , सुबह- सवेरे आध एक घण्टे  पूजा करने के बाद सत्तू और काली नमकीन मक्खनी चाय के साथ दिन शुरु हो गया। दिन में तोप्पा  का भोजन और रात को मोमोस बस, बीत गया दिन। खास मौको के लिए जौ से बनाई बीयर– छाँग पी तो मिल गया छुटकारा दर्दों से। मैंने लेह में कभी भी किसी के चेहरे को उदास नहीं देखा। सब्जी बेचने वाले सब्जी का गट्ठर लिए आराम से बैठे रहते हैं, आँखे मिली तो फट से कहा ” जुले”  नमस्कार कहा, नहीं तो शान्त भाव से बैठे रहे।  बूढ़े हाथ में प्रार्थना डंड घुमाते रहते या फिर बुद्ध की प्रार्थना बुदबुदाते रहते। किसी को किसी तरह की जल्दबाजी नहीं। नहीं बिकने की ना बिकाने की।

 

टैक्सी चालक ने बताया कि 1960-70 के दशक में लद्दाख में बेहद गरीबी थी। संभवतः पिछली शताब्दियों में हुए हमलों का परिणाम था , देश के बाहर से आए आक्रमणकर्ता तो ना जाने कितनी बार उन्हें कुचलते चले गए, भीतरी शासकों ने भी उन्हें नहीं छोड़ा।  कश्मीर के राजा हरिसिंह के सरदार सेनापति ने जोहार सिंह ने ही ना जाने कितनी बार लूटा लद्दाख को।  सिकन्दर की सेना के बिछड़े ऊँट तो आज भी दिखाई देते हैं। जो भी हो, लद्दाख  के भाले- भाले वासी लुटते  रहे किन्तु उनका विश्वास ना तो जिन्दगी से डगमगाया और ना ही अपने देवता पर से। वे ऊपर और ऊपर तक देवता का गोम्फा बनाने के लिए मिट्टी गारा ढ़ोते रहे,  अपने जिगर के टुकड़ों को गोम्फा में भेजते रहे और पहाड़ों से जुड़े रहे।

“भौत गरीब थे साब जी, हमारे माता पिता बताते हैं कि उनकी जवानी में तो भौत- भौत गरीबी थी। ” टेक्सी चालक नवाँग कह रहे थे।

” तो आप लोग पढ़ते थे,उन दिनों?”

“कहाँ , साहब भौत कम  स्कूल थे, हमारा गाँव लेह में तो था नहीं, गाँव से काफी चल कर ही स्कूल पहुँचा जा सकता था, बस थोड़ा बहुत पढ़ लेते थे।”

मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा,  देखने बोलने में वह कम पढ़ा नहीं लग रहा था। शायद अपनी अशिक्षा से दुखी होकर उसने अपनी बच्चियों को इतनी दूर बेहतर स्कूल में पढ़ने भेजा था। मैंने उन्हे कुरेदते हुए पूछा– “तो फिर क्या सोच कर आपने ड्राइविंग  सीखी ?”

” जब हम बड़े हुए तो हमारे पास दो ही रास्ते थे, या तो हम फौज में जाते या टैक्सी चलाते,  गोम्फाओं मे विदेशी लोग ना जाने कब से आ रहे हैं। मैंने सोचा कि सेना में जाऊंगा तो बाद में मुझे  फिर खाली बैठ पड़ेगा, किन्तु टैक्सी में तो मन मतलब का पैसा कमाया जा सकता है। ”

 

” कितने बरस से चला रहे हो टैक्सी?”

“कोई बीस बरस से साहब,”

” वाह तभी इतनी अच्छी चला लेते हो, ”

“अरे हमने तो कारगिल की लड़ाई में भी टैक्सी चलाई है, सामान सप्लाई करता था सेना को, मेरे गाँव के सभी लोग जुड़े थे सेना साहब। हम लोग फौज के ड्राइवरों से अच्छी गाड़ी चलाते हैं, बर्फ तक में गाड़ी फर्राटे से चला लेते है। यही नहीं जो गाड़ी नहीं चलाते उन्होंने पिट्ठुओं का काम किया था।,

आप लोगों को क्या सेना ने आमंत्रित किया था?

ऐसा था कि हमारे लद्दाखियों ने ही सेना की सहायता का निर्णय लिया,  अरे यदि हम लोग उन्हें नहीं रोकते तो वे  लोग सीधे लद्दाख तक नहीं चले आते? ”

धर्म और देशभक्ति एक दूसरे के एक दम विरोधी तो नहीं हैं, जैसा कि कुछ लोगों का विचार है।

तेज चलती गाड़ी के खिड़की से पहाड़ आते जाते जा रहे थे, ऐसा लग रहा था कि वे “पकर नाट्यम” (नाट्य कला, जिसमें एक ही कलाकार कई अभिनय कर दिखाता है) दिखा रहे हो।

 

किसे थामे है यह

स्टीयरिंग या बाँसुरी?

कार दौड़ रही है

तुम्हारी छाती पर

गीली धुन सी

यह

तुम्हे पूजता है

पूजता है गोम्फा मे बैठे

सभी  देवताओ को

फिर भी पहाड़ों

यह चालक , तुम्हारी सन्तति

धड़ल्ले से चढ़ा आ रहा है

तुम्हारे रोम रहित सीने पर

 

रोकोगे?

 

रास्ते में गोम्फा के आकार के मिट्टी के टीले से दिखाई पड़ रहे थे, पूछने पर पता चला कि उनके भीतर प्रार्थना मंन्त्र  बन्द  कर गोम्फा का आकार दिया जाता है, उनकी परिक्रमा करने मात्र से मन्त्र पढ़ने का लाभ मिल जाता है। ये  टीले विश्वास या मान्यता के लिए तो बनाए जाते ही हैं,  कभी- कभी दोषियों को भी  सजा के रूप में बनाना पड़ता था। रास्ते में कई जगह पत्थरों के ढेर मिले , इन ढेरों के करीब करीब हर पत्थर पर प्रार्थना मन्त्र खुदे थे। आस्था का यह रूप हमारे लिए नया था। संजीव रोल्वा ने बताया कि पुराने जमाने में जब किसी अपराधी को दण्ड दिया जाना होता तो उसे इस तरह पत्थरों पर मन्त्र खोदने को कहा जाता, इस तरह उसे दण्ड तो मिलता साथ ही मन की शुद्धि भी हो जाती। आस्था और शासन का यह समन्वय बड़ा नया था मेरे लिए।

 

सबसे पहले हम लोग शान्ति स्तूप गए. यह अपेक्षाकृत नया भवन है, इसका 1987 में दलाई लामा ने उद्घाटन किया था । विशाल गोलाकार भवन में  बुद्ध की विशाल काँसे की  प्रतिमा है। बुद्ध की प्रतिमा की सबसे बड़ी विशेषता उनके चेहरे की मुस्कान में  करुणा का सम्मिश्रण, जिसे देखते ही मन में अजीब सी शान्ति का अहसास होता है। मूर्ति पूजन की परम्परा में बुद्ध की मूर्तियाँ एक अलग ही अहसास जगाती है। शान्ति स्तूप अपेक्षाकृत नया निर्माण है, इसलिए कलात्मकता की दृष्टि से भी नवीन प्रतीत होता है। स्तूप के नीचे की की मंजिल में एक भवन है।

इसके बाद हम स्पितुक गोम्फा गए? यह गोम्फा ग्यारवी सदी में ओद दे द्वारा निर्मित था  जिसे । बाद में रिंचेन जोंगपो ने स्पितुक नाम दिया। इस गोम्फा में अनेक प्रकार के तंका , पुराने जमाने के अस्त्र शस्त्र और आभूषण आदि रखे हैं। पहाड़ी की चोटी पर महाकाल की विशालकाय मूर्ति है, जिसका चेहरा केवल उत्सव के वक्त खोला जाता है।  अभी तक हम गोम्फा की वास्तु कला और परम्परा से ज्यादा परिचित नहीं थे, अतः नवाँग ही हमारा गाइड बना हुआ बता रहा था कि किस तरह हमें नमन करना चाहिए और किस तरह प्रार्थना मन्त्रों से खुदे हुए मण्डलों को घुमाना चाहिए। बौद्ध विश्वास केवल ध्वनि का मुहताज नहीं हैं, प्रार्थना तो बस प्रार्थना है उन के लिए अक्षर खुदे हो या मुँह से उच्चरित, देवता के पास पहुँचते जरूर हैं। ये मण्डल घूमते हैं तो मंन्त्र स्वतः जीवित हो वायुमण्डल के द्वारा ब्रह्माण्ड में पहुँच जाते हैं। संभवतः यही कारण है कि अधिकतर बौद्ध विहार या गोम्फा पहाड़ों की चोटी पर बनाए जाते रहे, जहाँ धरती आसमान में अधिक दूरी ना हो। मुझे यह भी लगा कि बौद्ध धर्म के उद्भव के पीछे एक कारण था ..वैदिक आचारों की जटिलता और बहुलता। किन्तु आज सभी गोम्फाओं में लामा ही नहीं साधारण लोगबाग भी आचारों का पालन करते नजर आए। बौद्ध दर्शन का मनन रूप जो कि तापस से जुड़ा होता है इन विहारों में नहीं दीखता है। हो सकता है कि इतने कम समय के लिए आए सैलानियों को दिखाई ही नहीं देता। स्पुतिक गोम्फा में बुद्ध की बड़ी सी काँसे की मूर्ति अनेक देवताओं की मूर्तियों से घिरी हुई थी। सभी देवताओं के सम्मुख जल से भरे कटोरे और फलफूल मेवों से भरा पात्र था, जिस पर लोग भेंट भी  चढ़ा रहे थे। एक लद्दाखी परिवार जिसमें स्त्रियाँ ही ज्यादा थी,  एक नन्हे से बच्चे को लेकर आया था, लामा से बच्चे का नामकरण करवाने। स्पितुक में भिन्न देवताओं की मूर्तियों के साथ तंके और भित्ती कला के भी सन्दर उदाहरण देखने को मिले। उम्रदार स्त्रियाँ जरूर पारंपरिक वेषभूषा में थी,  लम्बा चोगा और सिर पर स्कार्फ जैसा कुछ, लेकिन युवा लड़कियाँ जरूर जीन्स व पेन्ट में दिखाई दीं।

 

क्रमशः