जुले लद्दाख   By Rati Saxena ( Part-1)

21.6.2006

 

सुबह- सुबह की उड़ान पकड़ने का सीधा मतलब होता है,यात्रा से पहले वाली रात की नीन्द की बलि, यही हुआ उस दिन जब हम त्रिवेन्द्रम से दिल्ली पहुँचे, तो रात के करीब दस बज चुके थे।   लेह की फ्लाइट पकड़ने सुबह सवेरे पाँच बजे तक  हवाई अड्डे पर पहुँचना  था। परिणाम यह हुआ कि सीट की बेल्ट बाँधते ही नीन्द ने आ दबोचा। नाश्ता करने के बाद तो आँखे खुली तक ना रह सकीं। लेकिन ना जाने  दीमाग की कौन सी खिड़की खुली रही कि कुछ समय बाद ही मुँदी आँखे अपने आप ही खुलने लगी थी और  अचानक ऐसा दृश्य सामने आया जिसने बन्द आँखों के पीछे से भी मन मोह लिया। खिड़की के बाहर झाँका तो पहाड़ों का झुण्ड खड़ा,.. बड़े पहाड़, छोटे पहाड़, ऊँचे पहाड़, नीचे पहाड़, लम्बे पहाड़, नाटे पहाड़,  ऐसा लग रहा था कि पहाड़ों का जंगल उग आया हो, आपस में इतने सटे कि मानों उंगली पकड़ कर खड़े हों।  ज्यादातर पहाड़ एक दम कर्कश मुद्रा में थे, लेकिन ना जाने आसमान की परछाई थी या  पहाड़ों के कंधे पर चढ़ी सफेद  बरफ का असर, ऐसा लग रहा था कि  पहाड़ों की शक्ल में अलग अलग रूप लिए नीले रंग बिखरे हुए हों,  ……एक अजीब सी कोमलता  का अहसास हो रहा था। आसमान एकदम साफ था, चमकदार धूप के बीच भी दो चार बादल पहाड़ों पर मंडरा रहे थे। मेरी खिड़की एन पंख के ऊपर थी , जिससे इस दृश्य को हवाई जहाज का एक पंख काटता सा लग रहा था, इस तरह  अनजाने में प्रकृति और निर्मृति में सम्बन्ध स्थापित कर हो रहा था। ऐसा नहीं कि इस तरह के  दृश्य बिल्कुल अपरिचित हों, कई बार ऐसे चित्र पत्र पत्रिकाओं में दिखाई देते रहे हैं, किन्तु उन चित्रों से आत्मीयता स्थापित नहीं हो पाती, क्यों कि उसमें अनुभूति नहीं होती है। घेरा बाँधे पहाड़ों के ऊपर से गुजरना अनिवर्चनीय अनुभव था। सामान्यतया पहाड़ी इलाकों और हरियाली में एक सम्बन्ध माना जाता है, किन्तु यहाँ हरियाली का नामों निशान तक नहीं था। हवाई जहाज पहाड़ों के करीब ही उड़ रहा था। दूर दराज तक न हरियाली और न ही आदमजात की निशानी। थोड़ी देर में पहाड़ों की गोद में हरियाली के छीटें दिखाई देने लगे। देखा तो कोई शहर था, लेह …लेह कई आवाजे फुसफसाती सी उठीं। लेह आ गया , इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु मन में आश्चर्य इस बात का हुआ कि यह इलाका , जो कि समुद्रतल से 12000 से भी ज्यादा फिट की  ऊँचाई पर है, जो आम  आबादी से इतना दूर है, उस पर भी आदमी ने अपना बसेरा बना लिया। न जाने कब और कैसे पहले पहल आदमियों का जत्था यहाँ पहुँचा होगा, जमीन की तलाश में या फिर भटकते हुए और उस जगह डेरा डाला जहाँ जिन्दगी पहाड़ में कोई अन्तर ही ना तह पाया हो। लेह एशिया का सबसे ज्यादा ऊँचाई पर बना हवाई अड्डा है़।

 

हवाई अड्डे पर मेजर संजीव रोल्वा अपनी पहाड़ी मुस्कान के साथ उपस्थित थे। मेजर संजीव, अजेय के मित्र व रिश्तेदार हैं जिन्होने अजेय के कहने पर हम लोगों की देखभाल की जिम्मेवारी उठा ली थी। अजेय कृत्या के संपादन मंडल में कुछ वक्त के लिए रहे थे।  पिछली रात को ही मेजर संजीव ने फोन पर पूछा भी था कि आप लोगों को पहचानूंगा कैसे मैडम?, मैंने कहा कि आप हमे खोज रहे होंगे और हम आपको, तो आसानी से पहचान हो जाएगी, और ऐसा ही हुआ। हम संजीव को पहचान पाते , उससे पहले संजीव ने हमें पहचान लिया।

 

भरपूर हरियाली के देश केरल से आई थी, इसलिए भरेपूरे भूरेपन को स्वीकारने ने कुछ वक्त लगा। पहले तो मन ने एकदम इंकार कर दिया मानने से  कि पहाड़ ऐसे भी हो सकते हैं, एक तिनका भी ना पहने, नंगे निचाट, धूमी लगाए अवधूत से माथे पर बर्फीली भभूति लपेट, मानों चिलम के नशे में मदमस्त।

संजीव रोल्वा ने कहा कि दो दिन आपको पूरा आराम करना है, इतनी निचाई से आए हैं, शरीर को इस ऊँचाई का आदि होने में वक्त लगेगा।  मैंने सोचा, इन अवधूतो से दोस्ती करने में भी वक्त लगेगा। हम लोगों ने सीमा सुरक्षा सेना  के गेस्ट हाउस में डेरा डाल दिया। गेस्ट हाउस के कमरे बोतलाकार थे। खिड़कियाँ बन्द, हवा के लिए कोई सुराख तक नहीं। फिर भी हल्की सी खुनक कमरों मे फैली हुई थी। कमरों के बाहर साँझी बैठक थी , वह भी पूरी तरह काँच की, खिड़कियों से मढ़ी । जून का महिना था , जो लेह का सबसे गरम महिना माना जाता है। सुबह से ही सूरज देवता बाहर वाले कमरे में आ धमकते, शुरु- शुरु में तो बैठक में आते तो लगता कि चश्मा लगाना पड़ेगा, तभी पता  लगा कि सोने रहने के कमरे इतने ढ़के मुन्दे क्यों है।

दो दिन आराम करना जरा मुश्किल तो लगा, किन्तु मैंने यह समय लद्दाख के बारे में कुछ जाननेबूझने की कोशिश में बिताया।

मुझे याद आया कि 1960-70 के आसपास,सरदियों के आते ही बहुत सारे लद्दाखी गरम शालों , स्वेटरों के साथ जयपुर की सड़कों के किनारे डेरा डाल देते थे। शायद अन्य बड़े शहरों में भी उनका डेरा लगा करता होगा।  हाथ से बुने गरम शाल स्वेटर बस वहीं मिला करते थे। लेकिन उनका अनगढ़ खुरदरापन उनका दाम काफी कम कर देता था। हम लोगों को यदि सस्ते और गरम शाल चाहिए होते थे तो हम उन लोगों के पास जाते थे। यह वह समय था जब लद्दाख पूरे देश से कटा हुआ था। सिल्क रूट के बारे में इतिहास की पुस्तके थोड़ा बहुत परिचय जरूर देतीं किन्तु विस्तृत जानकारी ज्यादातर लोगों को नहीं थी। बाद में तो लेह जाने का मार्ग सरकार द्वारा ही रोक दिया गया, सीमा सुरक्षा के चलते। लद्दाखी और तिब्बती नीचे के शहरों में दिखते तो जरूर हैं किन्तु वे अपनी सामाजिक सुरक्षा को लेकर इतने जागरुक होते हैं कि उनके जीवन से जुड़ना बाहर के लोगों के लिए प्रायः असंभव होता है। कहा जाता है कि वे दिन लद्दाखियों के लिए बेहद मुश्किल के थे। फिर भी वे अपनी जमीन से कटे नहीं।

सर्दियों के दिनों में बरफ, पानी की कमी के साथ- साथ जीवन वायु की स्वल्पता ने थोड़े वक्त के लिए उन्हें अपने पहाड़ों से  अलग तो किया, किन्तु उनका मन हमेशा -हमेशा अपने देवता को भजता रहा। मैं 2006 में लद्दाख में आकर, पूछती हूँ अपने आप से, ऐसा क्या मोह रहा इस जमीन में कि यहाँ के वासी इसे छोड़ नहीं पाए? यही नहीं जिस तरह से इस भूमि में आक्रमण हुए, उनकी गणना से तो यही लगता  है कि यह पहाड़ी जमीन कहीं ना कहीं कोई ऐसा महत्व जरूर रखती है जिसे समझना आसान नहीं हैं। कोई न कोई आकर्षण जरूर है , इस पहाड़ी धरती में। बड़ी अजीब सी स्थिति है, प्रकृति पग- पग पर रोड़ा डालती है तो पल-पल में अद्भुत आकर्षण में बाँधती है, जो एक बार उसके मोह  पाश में बँध गया वह इतनी आसानी से कहाँ छूट पाता है। आदमी भी कोई कम  जिद्दी प्राणी नहीं है। लद्दाख की जनसंख्या  अपने स्थान के घनफल की दृष्टि से देखा जाए तो शायद देश में सबसे कम होगी। कारण स्पष्ट है,

आदमी वहीं तो होगा जहाँ पानी हो, किन्तु लद्दाख में पहाड़ है, बर्फ है, बस कमी है तो निरन्तर बहते जल की। फिर भी जहाँ भी पानी का कोई भी आधार मिला आदमी ने अपनी बस्ती बसा ली।  ऊँचे पहाड़ों के बीच में जहाँ कोई झरना मिला, जहाँ  कोई जीवन का सहारा मिला, इन पर्वतीय देवदूतों ने अपना घर बसेरा बना लिया।

 

 

सुबह गरम, दिन तपतपाता, और साँझ के एन पहले तेज  अँधड़,  सूरज ढलते- ढलते रात के ८ बज गए। हम गेस्ट हाउस में कैद से थे। तीनों वक्त का खाना  लेकर परिचायक उपस्थित होता तो हम उससे बतियाने को उत्सुक रहते,  सिर और पेट में भारी पन न कुछ पढ़ने लिखने देता और न ही कुछ सोचने। रात को आठ बजे हम बाहर निकले,  कब तक कैद रहें? चलो पहाड़ों से दोस्ती कर लें… बाहर ठंडक थी, किन्तु सिर का भारी पन हमें किसी भी चीज का आनन्द लेने नहीं दे रहा था। पहाड़ो की तरफ देखा, उनके चेहरों की भाव भंगिमा हर घड़ी बदलती  थी। मुझे लगा कि अभी तक उन्होंने हम पर ध्यान ही नहीं दिया, वे नंगे निचाट अवधूत यूँ ही चिलम पीते बैठे रहे।

#

सुना तुमने?

पाहुने आए हैं तुम्हारे दरवाजे

और तुम

निसंग, उचाट, निपाट

यूँ ही बैठे रहोगे ?

या फिर

तनिक पानी दोगे

देखो मेरे पाँव पड़पड़ा उठे हैं

धूल से

 

##

 

नहीं,

नहीं सुना

या फिर सुन कर

कर दिया अनसुना

उन्होंने॔

“निपट पाहन जो हो

यदि हरी होती एक भी शिरा

बैठे रहते क्यों इस तरह?”

मैंने गुस्से को नहीं रोका

फिर ?

आँधी का अट्टहास

कुछ बून्दें

” लेह में बरसात

वह भी इस मौसम में?”

 

अचंभित थे लोग

बस मैं नहीं!

 

कब तक?कब तक?, मैने सोचा…. मैंने सोचा… दोस्ती तो करनी पड़ेगी, इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं मैं।

 

23.6.2006

 

क्रमशः